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कलाओं का न्यूरोविज्ञान (Neurology of arts)


भूमिका

मस्तिष्क, मानव शरीर का सबसे अबूझ रहस्यमय अंग है और सबसे महत्वपूर्ण भी। इन्सान का दिमाग सदा से कौतुहल का विषय रहा है। पहले सोचते थे कि आत्मा दिल या हृदय में रहती है। यह भी मानते थे कि भावनाएं, संवेदनाएं दिल में रहती है। लेकिन उस जमाने में भी मस्तिष्क को एक खास अंग माना जाता था।

अब हम जानते हैं कि मस्तिष्क ही हमारे मन का वास है। मन की तमाम विशेषताएं यहीं दिमाग में अवस्थित हैं। हमारी पहचान, व्यक्तित्व मैं का बोध, अहं, इगो आदि सब मस्तिष्क पर निर्भर हैं। हयवदन की कथा याद होगी। दो योद्धाओं के क्षत सिर भूल से बदलाकर दूसरे के शरीर से जोड़ दिये गये थे। नायिका की समस्या थी की उसका प्रेमी कौन है? सिर से ही व्यक्ति चीन्हा जाता है, क्योंकि सिर में मस्तिष्क मौजूद है।

मस्तिष्क द्वारा संपादित मन के अनेक गुण हैं मनुष्य की विशिष्टता, अद्वितीयता, उसकी प्रज्ञा या बुद्धि, उसकी मौलिकता उसका जीनियस स्वरूप इन्हीं गुणों के चलते कला की सृष्टि होती है। कला वह जो प्रकृति में पहले से मौजूद है और वह भी जो नयी गढ़ी जाती है। प्रकृति की कला में रंग है, दृश्य है, ध्वनियाँ है, संगीत है, समय का प्रवाह है, परिवर्तन है, कथा है। इन सब बिम्बों की पहचान हमारा मन मस्तिष्क करता है। नई कला का स्फुरण भी इन्सान के दिमाग में ही होता है।

इस सारी, रचना प्रक्रिया में मस्तिष्क के कौन-कौन से खण्ड क्या-क्या भूमिकाएँ निभाते हैं, इस बात की समझ अब धीरे-धीरे विकसित हो रही है।

कला के अनेक रूप हैं। अनेक विधाएँ हैं। साहित्य में गद्य, पद्य, नाटक आदि हैं। भाषा का लालित्य है। हास्य व्यंग्य है। चित्रकला, मूर्तिकला, अभिनय, नृत्य संगीत आदि सब मनुष्य के मस्तिष्क की रचनात्मक प्रतिभा के परिणाम हैं। और अब कम्प्यूटर जनित, दृश्य कला का विकास हो रहा है।

कला के विभिन्न रूपों की उत्पत्ति और रसास्वादन पर अनेक सिद्धान्त हैं जिनकी व्यापकता, सौन्दर्य शास्त्र, रससिद्धान्त, दर्शन और आध्यात्मिकता तक पहुँचती है। एक न्यूरोलॉजिस्ट के रूप में, मैं नितान्त भौतिकवादी लहज़े में कुछ कला-विधाओं को समझने समझाने की कोशिश करूँगा।

मस्तिष्क के कार्यकलाप किस तरह कला की सृष्टि से सम्बद्ध है यह समझने के लिये गौर कीजिये उन पायदानों (प्रक्रियाओं) पर जिनसे कोई कलात्मक रचना गढ़ी जाती है सबसे पहले है –

इन्द्रिय बोध

हमारी आँखे, कान, स्वाद, गन्ध, स्पर्श आदि इंद्रियाँ इस संसार के नाना रूपों और गुणों को हमारे मस्तिष्क तक पहुँचाती है। ये समस्त इंन्द्रियाँ हमारे तंत्रिका तंत्र (नर्वस सिस्टम) का हिस्सा हैं और मस्तिष्क के ही फैलाव हैं। सभी रचनाकार तीक्षण इंद्रियों के धनी होते हैं। समस्त इंद्रियाँ तीक्ष्ण होना जरूरी नहीं हैं।) जन्मान्ध सूरदास या मिल्टन श्रेष्ठ साहित्य गढ़ सके। फिर भी कल्पना की जा सकती है कि अधिकाधिक इंद्रियों के कार्य में व्यतिक्रम से कला पर असर होता होगा।

अनुभूत स्मृतियों का भण्डार

जो कुछ भी हम इंद्रियों से ग्रहण करते हैं वह हमारी संचित निधि बनता जाता है। यादों का खज़ाना, ज्ञान का सागर हमारे मस्तिष्क में ही निहित है। यादें जो व्यक्तिगत हैं और ज्ञान जो सार्वजनिक है, दोनों ही स्मृति के पहलू हैं। मस्तिष्क के दोनों गोलार्धों की गहराई में स्थित हिप्पोकेम्पस, एमिग्डेला, थेलेमस आदि हिस्से स्मृति लेख के लिखे जाने व आवश्यकता पड़ने पर उसकी पुनरावृत्ति (री-प्ले) करने में खास भूमिका निभाते हैं। तरह-तरह की स्मृतियाँ अलग-अलग उपखण्डों में संचित होने के लिये बांट दी जाती है। जो जानकारी ज़िस इंद्रियं से भीतर आई उसी से सम्बन्धित मंत्रालय को उसे जानकारी को संभालने का जिम्मा सौंपा जाता है। उदाहरण के लिये दृश्य स्मृतियाँ, मस्तिष्क के पिछले हिस्से में आस्सिपिटल खण्ड में तथा श्रव्य स्मृतियाँ टेम्पोरल खण्ड में संचित की जाती है।इन सभी खण्डों द्वारा आपस में जानकारी का आदान-प्रदान होता रहता है।

किसी भी श्रेष्ठ रचनाकार के लिये जरूरी है कि उसकी स्मृति की ग्रहण भण्डारण और पुनरावृत्ति क्षमताएं पहले दर्जेकी हों। अच्छे लेखकों को ढेर सारा साहित्य पढ़ना होता है। चित्रकार या नाटककार नाना दृश्य रूपों को मन में बड़ी आसानी से सहेजकर रखते जाते हैं और जब गढ़ने का समय आता है तो वही अनुभव परिष्कृत होकर बाहर निकलता है। उच्च कोटि के संगीतकार, तरह-तरह की ध्वनियों और उनके क्रम को बार-बार सुनते, उलटते-पुलटते रहते हैं ताकि नयी रचना बने या कोई पुरानी महान रचना फिर उसी बारीकी से प्रस्तुत की जा सके।

कला की रचना में, अनुभूतियों की ग्राह्य और भण्डारण से भी महत्वपूर्ण है।

बुद्धि द्वारा स्मृतियों का विश्लेषण

किसी बड़े शहर की टेलीफोन-निर्देशिका में हजारों प्रविष्टियाँ होती हैं। परन्तु उसे हम बुद्धि या कलात्मकता का उदाहरण नहीं मानते | महज तोतारटन्त द्वारा प्राप्त ढेर सारा ज्ञान किसी काम का नहीं होता जब तक कि उसे समझा या नियम न पहचाने जाए| यह सारा विश्लेषणात्मक काम बुद्धि द्वारा सम्पादित होता है। बुद्धि मस्तिष्क का सर्वोच्च व सबसे जटिल गुण है। सोचना, तर्क करना.निर्णय लेना आदि कार्य बुद्धि द्वारा सम्पन्न होते हैं। कोई भी मौलिक सूझ या विचार नितान्त नया कभी नहीं हो सकता। उसकी पृष्ठभूमि में पुरानी जानकारी, पुराने विचार भी रहते हैं। श्रेष्ठ कला का जन्म, उच्च बुद्धि के बिना सम्भव नहीं। यह कहना मुश्किल है कि मस्तिष्क का कौन-सा भाग बुद्धि का नियंत्रक है। शायद पूरा मस्तिष्क जरूरी है किसी भी उस कार्य के लिये जिसमें बुद्धि का उपयोग होता है। फिर भी, दिमाग के अगले भाग में स्थित फ्रांटल-खण्ड की भूमिका अधिक होती है।

मन और मस्तिष्क का एक और विशिष्ट गुण है जिसके बगैर कला-सृष्टि सम्भव नहीं, वह है भावनाएँ, भावुकता या संवेदनशीलता।

यह गुण प्राय: बुद्धि और तर्क से परे होता है। परन्तु यह भोजन में लवण या मसाले के समान है। इसके बिना सब फीका है। कलाकार और कला रसिक दोनों का भावप्रवण होना जरूरी ही है। मस्तिष्क की गहराई में स्थित लिम्बिक खण्ड का भावनाओं से गहरा सम्बन्ध है। इस खण्डकी कार्यविधि कुछ हद अन्य जानवरों से मिलती है तथा इस बात की परिचायक है कि मानव-प्रजाति के विकास में यह खण्ड पहले अस्तित्व में आया। भूख, काम, वासना, क्रोध, भय, वात्सल्य, शान्त, उत्फल्लित, उदास आदि अनेक प्रकार की आदिम अवस्थाओं का नियंत्रण -मस्तिष्क के लिम्बिक खंड द्वारा किया जाता है। सृजनशील कलाकारों की खूबी इसी में हैं कि प्रखर के बावजूद वे अपनी आदिम संवेदनाओं को दमित नहीं करते हैं बल्कि निर्बाध रूप से उभरने का मौका देते हैं। कोई भी कला खोपड़ी की हड्डी के भीतर ही कैद होकर रह जाएगी यदि उसे अगली अवस्था न मिले।

अभिव्यक्ति

अर्थात बाहर आने का अवसर और वह भी श्रेष्ट कलात्मक स्वरूप से। ऐसा अनेक बार होता हैं कि विचार अच्छा सुझा, कहानी भली सोची, चित्र सुन्दर कौंधा या संगीत मधुर झंकृत हुआ, परन्तु बाहर न आया। अभिव्यक्ति के तमाम साधन मस्तिष्क के ही उपादान हैं। बोलना, गाना, बाजाना, लिखना, तूलिका चलना, छेनी चलाना, नाचना, अभिनय करना, इन समस्त प्रेरक क्रियाओं का नियंता मस्तिष्क व विशेषकर उसका फ्रंटल खंड है।

बगैर रसिकों के कला का अस्तित्व बेकार है। उसे ग्राह्य करने वाला भी तो कोई चाहिये। ग्रहणकर्ता के मन जब रस-निष्पत्ति होती है तो ये सारी पाँचअवस्थाएँ एक बार पुन: दोहराई जाती है – इन्द्रियाँ, स्मृतियाँ, बुद्धि, भावनाएँ और अभिव्यक्ति।

किसी जटिल मशीन में सैकड़ों पुर्जेहोते हैं। कौन-सा पुर्जा या नट-बोल्ट क्या काम करता है इसकी जानकारी उस मशीन के आविष्कारक या बनाने वाले को होती है। यदि आपका सामान किसी नई मशीन से पहली बार पड़े तो यह जानना दुष्कर होगा कि उस यंत्र के विभिन्न हिस्सों के क्या कार्य हैं? इन्सान का कुदरत के द्वारा बनाई एक ऐसी ही जटिल मशीन है। न्यूरो-वैज्ञानिक जूझते रहे हैं मस्तिष्क की कार्यप्रणालियों को समझने के लिये। इस काम में उनके तरीके क्या हैं? एक तरीका है कि यंत्र या (मस्तिष्क) के एक-एक छोटे हिस्से को क्षत कर दिया जाए और फिर देखें कि काम कैसा चल रहा है। यदि मस्तिष्क की प्रथम जोड़ी नाड़ी जो नाक को लिम्बिक खण्ड से जोड़ती है, काट दी जाए तो व्यक्ति की सूंघने की क्षमता चली जाती है इसये यह निष्कर्ष निकालना स्वाभाविक है कि उक्त नाड़ी व उससे सम्बद्ध हिस्सों के जिम्मे प्राणशक्ति का काम दिया हुआ है। ऐसे हजारों श्रमसाध्य प्रयोग जानवरों पर किये गये हैं।

मनुष्यों पर ऐसे प्रयोग करना अनैतिक है। हिटलर के अधीन काम करने वाले नाज़ी वैज्ञानिक इसके अपवाद थे। यहाँ हम सहारा लेते हैं प्रकृति के क्रूर प्रयोगों का। बीमारी। जी हाँ विभिन्न बीमारियों में जब मस्तिष्क के विभिन्न हिस्से काम करना बन्द कर देते हैं तो मालूम पड़ता है कि उस मरीज को किस कमी का सामना करना पड़ रहा है। मस्तिष्क के बायें गोलार्ध के ब्रोका क्षेत्र में बीमारी होने से मनुष्य की बोलकर व लिखकर अभिव्यक्ति करने की क्षमता में ह्रास होता है। सुनकर व पढ़कर समझने की क्षमता तुलनात्मक रूप से बेहतर रहती है। व्यक्ति अटक-अटक कर बोलता है। गलत उच्चारण होते हैं। व्याकरण की गलतियाँ होती हैं शब्द याद नहीं आते। एक स्पष्ट चित्र उभरा है कि मस्तिष्क का कौन-सा भाग क्‍या काम करता है।

कविवर धूमिल या कथाकार श्री जैनेन्द्र कुमारजी को जब मस्तिष्क में रसौली या पक्षाघात हुआ था तो उनकी वाणी की क्षमता में ऐसा ही ह्रास देखा गया था।

मस्तिष्क के विभिन्न अंगों द्वारा सम्पादित कार्यों को जानने के और भी तरीके हैं। आधुनिक एक्सरे (केट. स्केन, आर.आई.स्केन, पेट स्केन) विधियों से जीवित मनुष्य के मस्तिष्क के सजीव चित्र प्राप्त किये जाते हैं तथा यह देखा जाता है विगत कार्य करते समय मस्तिष्क के किन-किन हिस्सों में विद्युत व रासायनिक प्रक्रियाएं अधिक घनीभूत हो उठती हैं।

खोपड़ी के कुछ हिस्सों को सुन्न करके कपाल में छेद किया जा सकता है। जब मस्तिष्क बाहर झांकने लगता हैं तो उसकी सतह या गहराई में विद्युत के तार छुआ या गड़ा दिये जाते हैं और सूक्ष्म मात्रा में बिजली प्रवाहित कर उन हिस्सों को उद्दीप्त किया जाता है। इस विद्युत-उद्दीपन के कारण मनुष्य वही कार्य अपने अपने करने लगता है जो मस्तिष्क के उक्त हिस्से द्वारा किया जाता है। कुछ अन्य हिस्सों के उद्दीपन से सघन अनुभूतियाँ होती हैं- दृश्यों, ध्वनियों स्वप्नों, संवेदनाओं आदि की।

साहित्य

कला का एक प्रमुख और श्रेष्ठ रूप है – साहित्य। साहित्य का मूल आधार है भाषा व वाणी।

बोलने सुनने वाली भी और लिखने पढ़ने वाली भी। शब्द और अर्थ एक दूसरे से किस कदर असंपृक्त हैं कि महाकवि कालिदास ने उस हेतु उपमा शंकर-पार्वती से की है। वागर्थाविवसंप्रक्तौ [उमामहेश्वरो…

ध्वनि शब्द वाक्य कथन संवाद और उन सब में निहित अर्थ का नियंत्रण करना मस्तिष्क की सर्वोच्च उपलब्धि है। इसके बिना बुद्धि और विचार तक सम्भव नहीं। अब हम विचार से जानते हैं कि मस्तिष्क भाषा का नियंत्रण कैसे करता है। कुछ व्यक्तियों में बात को चटखारे पूर्ण ढंग से तथा लालित्यपूर्ण ढंग से कहने की क्षमता कम होती है। (ऐसे व्यक्तियों को मनोभाषिकी में एलेक्स थाइमिक कहा गया है। इनके मस्तिष्क के वाणी वाले हिस्से कम विकसित होते हैं।

मस्तिष्क में पक्षाघात (कुछ हिस्सों में रक्तप्रदाय में रुकावट) से अफेज़िया (अवाग्मिता या वाचाघात) की स्थिति पैदा हो जाती है। एक न्यूरोलॉजिस्ट के रूप में अपनी विशेष शोध-रुचि के कारण मैंने ऐसे बीसियों मरीजों की वाणी क्षमता का विस्तार का अध्ययन किया हैं। उनकी भाषा में आगत दोषों का वर्गीकरण किया हैं। ये दोष उच्चारण, शब्द चयन, व्याकरण, अर्थ आदि अनेक स्तरों पर देखे जाते हैं।

इन मरीजों के मस्तिष्क के एक्सरे चित्रों का अध्ययन कर यह पता लगाया है कि दिमाग का कौन-सा भाग रोगग्रस्त है। तब यह निष्कर्ष निकाले हैं कि भाषा का फलां फलां पहलू मस्तिष्क के इस-इस भाग द्वारा नियंत्रित होता होगा।

आमतौर पर यह माना जाता है कि अधिकांश मनुष्यों में (जो दक्षिण-हस्त होते हैं), मस्तिष्क का बायां गोलार्ध वाणी को नियंत्रित करता है । लेकिन वाकव्यवहार शब्दों और शब्दश: अर्थ से परे और भी बहुत कुछ है। भाषा की लय उतार-चढ़ाव, भावुकता, हाव-भाव, संगीतात्मकता, तन-भाषा आदि क्रियाओं पर मस्तिष्क के दायें गोलार्ध का नियंत्रण रहता है।

उपमा कहावतें और शब्दशक्तियाँ

हार्वर्ड के डॉ. विनर और साथियों ने अनेक न्यूरालाजिकल बीमारों में उक्त क्षमता का अध्ययन किया।

‘अपना भारी दिल लिये वह चला गया इस वाक्य को सुनाने के बाद चार चित्र दिखाये गये। एक में व्यक्ति रो रहा था व दुखी था। दूसरे में वह एक बड़ा-भारी हृदय सिर पर ढो रहा था, तीसरे में एक.बड़ा बोझ दिखाया गया था और चौथे में एक बड़ा लाल हृदय। मरीजों से अपेक्षा की गई कि वे उक्त वाक्य से मेल खाते चित्र को इंगित करें। बाद में उनसे उस मुहावरे का अर्थ समझा कर कहने को कहा गया। मस्तिष्क के विभिन्न भागों में रोग से ग्रस्त मरीजों ने अलग-अलग प्रकार की गलतियाँ कीं। दायें गोलार्ध में खराबी होने की दशा में मरीजों ने मुहावरे का शाब्दिक अर्थ बताने वाले चित्र को अधिकता से चुनने की गलती की।

हास्य/व्यंग्य और मस्तिष्क

मस्तिष्क की बीमारी के फल स्वरूप वाणी खो चुके मरीजों में चुटकुला, कार्टून समझने की क्षमता खो सकती है। या वे स्वयं कोई मजेदार या मजाकिया बात कह नहीं पाते। अलग ही दिशा में, एक अन्य खराबी देखने को मिलती है कुछ मरीज अनावश्यक, छिछोरापन व बेमतलब की हँसी मजाक करने लगते हैं। वे त्रासदी व कामेडी का भेद भूल जाते हैं। बॉस्टन के डाक्टर गार्डनर ने अपने साथियों के साथ अनेक ऐसे मरीजों का विस्तार से अध्ययन किया। मस्तिष्क के दायें-गोलार्ध में रोग होने की दशा में अधिक खराबी देखी गई। या तो वे हर कार्टून पर हँसे पड़ते, चाहे समझ न आया हो, या कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न करते, चाहे समझ आ गया हो।

संगीत और मस्तिष्क

संगीत की परिभाषा करना मुश्किल है। एक प्रयत्न है संगीत। ध्वनियों को स्वर और ताल में जमाने की वह कला या विज्ञान है जो एक सुखद प्रभाव छोड़ती है। संगीत और वाणी का गहरा रिश्ता है दैनिक जीवन में बोली के उतार, चढ़ाव से लेकर कविता, गीत, भजन तक यह सम्बन्ध परिलक्षित होता है।

Music is non-propositional वाणी Propositional है फिर भी संगीत का रसास्वादन भावनात्मक की तुलना में बौद्धिक अधिक है। हर कोई संगीत का आनंद लेना नहीं जानता। कुछ तो इस मामले में निरे जड़ होते हैं – नीरस। बहुत से लोग संगीत सुन लेते हैं परन्तु गा या बजा नहीं सकते। संगीत की अपनी चित्र-लिपि या भाषा होती है। भारतीय संगीत में श्रव्य परम्परा का बाहुल्य होने से इस भाषा को अधिक महत्व नहीं मिला। पश्चिमी संगीत में उसे लिखे व पढ़े जाने पर बहुत जोर है। जैसे लेखक ने दिमाग से शब्दों व वाक्यों का सोता फूट पड़ता है और किसी नयी रचना की सृष्टि होती है। वैसे ही संगीत के रचनाकार के दिमाग में वह ध्वनि-पुंज गुंजित होने लगता है और उसे वह कागज पर लिख डालता है।

ऐसे मरीज देखे गये हैं जिन्हें मस्तिष्क के किन्‍हीं खास-खास भागों में रोग होने से संगीत-क्षमता में ह्रास देखा गया। यह हानि सम्पूर्ण हो सकती है यानि उस व्यक्ति की संगीत की समझ व गाने बजाने की क्षमता जाती रही। या यह हानि आंशिक-सीमित हो सकती है – संगीत के किसी सिर्फ एक पहलू को लेकर। इसका यह अर्थ निकाला जाना स्वाभाविक है मस्तिष्क के उक्त रुणण हिस्से द्वारा  संगीत का वही पक्ष सम्पादित -नियंत्रित होता होगा जो अब खोया जा चुका है।

प्रसिद्ध रूसी संगीत रचनाकार शेबालिन को पक्षाघात हुआ था व उनकी वाणी समझ कम हो गई थी। वे लिख नहीं पाते थे। परन्तु संगीत रचना जारी रही जिसे अन्य पारखियों ने कमतर दर्जे की न माना। सब तरह की रचनाएँ – गीत, पद, समूहगान, आर्केस्ट्रा। मृत्यु के पश्चात उनकी खोपड़ी से मस्तिष्क बाहर निकाला गया। उनका विच्छेदन किया महान रूसी न्यूरोसाईकोलॉजिस्ट एलेक्ज़ान्दर लूरिया ने और पाया कि मस्तिष्क के बायें गोलार्ध के टेम्पोरल व निम्न पेराईटल खण्ड का बड़ा भाग, पहले हो चुके रक्तस्त्राव के कारण, पिलपिला व नरम पड़ गया था। लूरिया ने अपने निष्कर्ष में कहा यह सही है कि वाणी की इकाई -स्वन्‌ और संगीत की इकाई – स्वर, दोनों ही ध्वनि के रूप हैं, फिर भी मानव मस्तिष्क द्वारा दोनों का ग्रहण, संग्रहण आदि भिन्न-भिन्न हिस्सों में किया जाता होगा।

रंगों की दुनिया का मस्तिष्क से सम्बन्ध

कलर ब्लाइण्ड या रंगांधता का नाम अनेक पाठकों ने सुना होगा। कई व्यक्ति जन्म से, रंगों की पहचान व भेद नहीं कर पाते। कुछ नौकरियों में, विशेषकर सैनिक, ड्रायवर आदि के लिये, मेडिकल परीक्षण में रंग क्षमता की जांच पर खास जोर दिया जाता है। आमतौर पर रंगांधता का कारण होता है आँख के पर्दे, रेटिना में रंग की पहचान क़रने वाली शंकु कोशिकाओं (कोन्स) की कमी। इसके विपरीत फिर भी मस्तिष्क की बीमारियों के कारण रंग बोध का ह्रास कम ही देखा गया है। यह सही है कि आँख के परदे पर पड़ने वाले तमाम बिम्बों की पूरी पहचान अन्तत: मस्तिष्क के पिछले भाग में स्थित दो आस्सिपिटल खण्डों में सम्पन्न होती है।

न्यूरालॉजी शोध पत्रिकाओं में बहुत खोजने पर ऐसे कुछ मरीजों का हवाला मिला। इन वर्णनों को पढ़ना मजेदार है तथा इस बात को इंगित करता है कि चित्रकला में रंगों के सुरुचिपूर्ण उपयोग पर मस्तिष्क का नियंत्रण (या अनियंत्रण) अपने आप में एक काबिले-गौर विषय बन सकता है। कुछ उदाहरण देखिये – सब कुछ भूरा-भूरा लग रहा है, रंग कहीं खो गये हैं, रंग अलग-अलग तो लगते हैं पर पहचाने नहीं जाते। ड्राईंग में भरते समय गलतियाँ होती हैं। कोई खास रंग चुनते समय अधिक मुश्किल आती है। रंग पहचान लिये जाते हैं परन्तु उनका गाढ़ापन य चटखपन या मंदापन समझ में नहीं आता सारी दुनिया भद्दी, सुस्त और बदरंग प्रतीत होती है।

मस्तिष्क का आस्पिपिटल खण्ड, जिसमें रंग सम्बन्धी कार्यविधि-निहित रहती है, यदि किसी कारण से, ज्यादा ही उत्तेजित हो जावे तो अजीबो-गरीब, रंग-संसार रच जाता है मरीज की आँखों के सामने। ऐसा माइग्रेन और एपिलेप्सी के मरीजों में कभी-कभी देखने- सुनने को मिलता है। संवेदना का यह दौर कुछ मिनिट मात्र चलता है। मरीज इसे याद रख कर बाद में चित्ररूप में प्रस्तुत कर सकता है। क्या यह सोचना रोमांचक नहीं है कि चित्रकला के समस्त रूप, बिम्ब, रंग आदि हमारे मस्तिष्क के किसी चीन्हे गये अंश में विद्यमान है। उन्हें हम विद्युतीय तरंगों के रूप में माप सकते हैं। उस खण्ड को विद्युतीय रूप से उद्दीघ्त कर वही चित्र रूप पुनरावृत्त किया जा सकता है। कलाकारों की चित्र शैली व रंग शैली में इन मस्तिष्कीय खण्डों की व्याधियों से परिवर्तन आ सकते हैं। जर्मन वैज्ञानिक हॉफने जाग्रत मरीजों की खोपड़ी के पिछले हिस्से को सुई लगाकर सुन्न किया, खोपड़ी में एक बड़ा छेद किया, मस्तिष्क पर बिजली के महीन तारों से हल्की विद्युत प्रवाहित की और मरीज की अनुभूतियों को डायरियों में लिखता गया।

कुछ उदाहरण देखिये – रंगों का विस्फोट हो रहा है, अजीब-अजीब डिजाईनें जन्म ले रही हैं और गायब हो रही हैं, केलिडोस्कोप की भांति। वस्तु और रंग अलग होते जा रहे हैं। लाल गेंद से लाल रंग अलग हो गया है या तो दूर जा रहा है या पास आ रहा है। पदार्थों की सतह मखमली या स्पंजनुमा दिख पड़ रही है। रंग बिरंगी वस्तुओं के अलग-अलग रंग भिन्न दिशाओं व आयामों में छिटक गये हैं।

यदि मरीज चित्रकार, परिधान डिज़ाईनर या अन्तरिक सज्जाकार हो तो इस प्रकार की कमियाँ अधिक विविधता जटिलता और प्रगाढ़ता से प्रकट होती हैं। ब्रिटिश न्यूरोलॉजिस्ट इंग्रेथ ने 1934 में एक 62 वर्षीय चित्रकार का वर्णन प्रकाशित किया था। अपने चित्रों में वह गहराई या तीसरा आयाम ठीक से चित्रित नहीं कर पाता था। इस कमी से उबरने के लिये वह नज़दीकी वस्तुएँ चित्र के बाँये निचले कोने में व दूरस्थ वस्तुएँ दाँये-ऊपरी कोने में चित्रित करने लगा। वह नीले व काले रंग का प्रयोग बिना सूझ-बूझ के करता था। वह प्राय: नीले रंग को टालता था, चाहे उसकी कितनी ही आवश्यकता क्यों न हो। कभी-कभी एक ही लेण्डस्कैप को दो अलग-अलग रंगों में दोहरा देता था। इंग्रेथ के अनुसार, चित्रकला में नीला रंग का उपयोग गहराई दर्शाने में होता है क्योंकि नीला रंग ही जल, समुद्र, आकाश या शून्य का रंग है। यही कारण है कि सात वर्ष से कम उम्र के बच्चों की कला में नीला रंग कम दिख पड़ता है। उन्हें गहराई का बोध होता ही नहीं। लन्दन और फ्लोरंस में बच्चों के अस्पताल में विकलांग बच्चों की बनाई पेंटिंग्स के अध्ययन से ऐसा ही निष्कर्ष निकाला गया था।

रेनांसा युग की चित्र कला में एक न्यूरालाजी जाँच चिन्ह

ऐसा कौन हैं जिसके पैरों में कभी गुदगुदी न की गई हो। या ऐसा कौन है जिसने कभी किसी बच्चे के पैरों में गुदगुदी न चलाई हो। क्या कभी गौर किया हैं? पैरों की उँगलियों और अंगूठे क्या हरकत करते हैं। बहुत हौले से गुदगुदी चलने पर वे नीचे की और मुड़ जाते हैं। मानों स्पर्श करने वाली ऊँगली को पकड़ लेना चाहते हों। अचानक जोर से गुदगुदी चलने पर पूरा पैर ऊपर खींच लिया जा सकता है। एक वर्ष से कम उम्र के बच्चे में पैर का अंगूठा व अन्य उँगलिया नीचे के बजाय ऊपर की ओर मुड़ती हैं। आज से लगभग 100 वर्ष पूर्व फ्रांसीसी न्यूरोलॉजिस्ट बेबिन्सकी ने इन हरकतों को करीबी गार से नोंद किया तथा अनेक न्यूरोलॉजिकल बीमारियों का उस पर प्रभाव देखा। तबसे बेबिन्सकी साहब का नाम न्यूरोलॉजी की दुनिया में अमर हो गया। आज हम भी इस परिक्षण– चिन्ह का खूब उपयोग करते है और उसे बेबिंसकी का नाम देते हैं। मध्ययुग की रेनांसा (पुनर्जागरण) व् बेरोक कला में इसे उदाहरण ढूंढे जा सकते हैं जिनमें बच्चे के पैर के अंगूठे में स्पर्श से होने वाली हरकत को भी अंकित किया गया हैं।

कला और विज्ञान के सबसे प्रगाढ़ सम्बन्ध 14 वी और 15 वी शताब्दी के इटली में विकसित हुए थे। उत्तर मध्य युग और पुनर्जागरण कला में इटली में अनेक नगर राज्यों की सम्पन्न सत्ता थी। इनकी एक प्रमुख संस्था थी गिल्ड। उत्पादकों, कलाकारों व् बैंकर्स का स्वतन्त्र संग गिल्ड कहलाते थे। चिकित्सकों व औषधिविदों के संघ में चित्रकार सम्मिलित किये जाते थे। चित्रकारों को चिकित्सकों के समान आदर प्राप्त था। जैसे चिकित्सक अपनी औषधियाँ स्वयं गढ़ते थे वैसे ही चित्रकार अपने रंग भी। चित्रकारों और चिकित्सकों के संरक्षक संत एक ही थे – सेंट लूक। सेंट लूक स्वयं कलाकार व चिकित्सक दोनों थे। जैसे अपने यहाँ देवी सरस्वती विद्या व कला दोनों की अधिष्ठात्री हैं।

समय और मस्तिष्क

तक पहुँचने वाली संवेदनाएँ विद्युत तरंगों के रूप में प्रवाहित होती हैं। इन तरंगों की अपनी लय होती है। स्पर्श, दृश्य, श्रवण, घ्राण, स्वाद, तमाम इंद्रियों पर ग्रहित जानकारी विद्युतीय लय के माध्यम से मस्तिष्क तक पहुँचती है। इस लय में जटिल क्रमिकता है। बंद-चालू का गणितीय कोड है मस्तिष्क इस कूट भाषा को पढ़ना खूब जानता है। कोई भी क्रम या लय बिना समय के नहीं बन सकती। विद्युत तरंगें आखिर एक दूसरे के आगे या पीछे ही तो होंगी। अर्थात्‌ यह समय सापेक्ष है। कोई भी जानकारी समय निरपेक्ष नहीं हो सकती। इंद्रियों से प्राप्त जानकारी का मस्तिष्क में विश्लेषण उसकी विद्युतीय सामयिक (टेम्पोरल) पेटर्न पर निर्भर करता है। परन्तु यह हमारी चेतना तक नहीं पहुँचता। समय का बोध, उसका अहसास, मस्तिष्क के बायें गोलार्ध के हिस्सों द्वारा संचालित होता है जो वाणी या भाषा के भी केन्द्र होते हैं। मस्तिष्क में भरी जाने वाली व मस्तिष्क में निकलने वाली सभी जानकारी पर “समय का लेबल” लगाने का काम बायाँ गोलार्ध करता है। जब घटनाएँ एक साथ न घटते हुए, आगे पीछे घटती हैं तब ‘क्षण’ का स्थान, दीर्घ समय ले लेता है। जहाज पर घटने वाली घटनाओं का रजिस्टर ‘लाग बुक”, थल से दूर अथाह सागर में दिन-रात होने वाली घटनाओं को तारीख व समय के साथ नोंद किया जाता है। इस नोंद पुस्तक के अध्ययन से उस जहाज की यात्राओं का इतिहास लिखना सम्भव है। यदि यही जानकारी अलग-अलग पन्नों पर लिखी गई होती तो इस इतिहास की गढ़ना मुश्किल होती। यदि इन पन्नों पर समय व तारीख न अंकित की जाए तो यह कार्य लगभग असंभव होगा। इससे भी अधिक, यदि प्रत्येक पेज पर लिखे गये शब्द या पेराग्राफ अलग-अलग कर दिये जाएँ और फिर गड्डमड्ड कर दिये जाएँ तो उक्त रद्दी में से कोई भी अर्थ नहीं निकाला जा सकेगा। अर्थ पाने के लिये आवश्यक है कि जानकारी की इकाईयों को नियत क्रम में रखा जाए।

यदि एक सिनेमा को टुकड़ों में काट कर पुनः ऊलजुलूल क्रम में जोड़ कर दिखाया जाए तो क्या होगा। 1960 में एलन रस्ने द्वारा निर्देशित प्रयोगात्मक फिल्म लास्ट विअर पर मारिन बाद में एसा ही किया गया था। कथानक को जानबूझ कर कलात्मक दृष्टी से गड़बड़ कर दिया गया था। फिल्म ने कोई अर्थ या सन्देश संप्रेषित नहीं किया, सिर्फ एक स्वप्निल माहौल बना डाला।

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