प्राणियों में अनेक प्रयोग किये गये हैं जो पढ़ने-सुनने में शायद कुछ पाठकों को अच्छे न लगें। परंतु वैज्ञानिक खोजों में ऐसे प्रयोग जरूरी हैं। चूहा, खरगोश बंदर आदि जानवरों की खोपड़ी खोलकर मस्तिष्क के छोटे बिन्दु पर जान-बूझकर विकृति (पेथालॉजी) पैदा करते हैं। अनेक तरीके हैं। कुछ रसायन लगाते हैं, ऐसे रसायन जो मस्तिष्क के ऊतक को क्षोभित (क्षोभ चिड़चिड़ापन irrialation) करते हैं । बार-बार लम्बे समय तक क्षोभ से उक्त हिस्से में न्यूरान कोशिकाओं की उत्येज्यता (Excitability) बढ़ जाती है।
अर्थात् वे कोशिकाएं अधिक फायरिंग करती हैं, हर कभी करती हैं, ज्यादा जोर से व ज्यादा देर तक करती हैं । सूक्ष्मदर्शी यंत्र से देखने पर संभव है कि ये कोशिकाएं सामान्य प्रतीत हों। परंतु बिगडैल स्वरूप परखने के लिए अति सूक्ष्म विद्युतोद (Electrode) द्वारा भीतर व बाहर की लघु विद्युतीय तरंगों को नापते हैं । कल्पना कीजिये कितने महीन इलेक्ट्रोड (विद्युतोद) होते होंगे जो एक कोशिका की बिजली नाप लें।
जानवरों के मस्तिष्क में, प्रयोग की खातिर,मिर्गी जनक खराबी पैदा करने का एक और तरीका होता- महीन तारों द्वारा बाहर से वुद्युत प्रवाहित करना । कुछ मिली वोल्ट्स की विद्युत , सूक्ष्म इलाके में रुक-रुक कर, कई दिनों तक प्रवाहित करते हैं। उन्हें ग्रहण करने वाली न्यूरान कोशिकाओं के गुण बदलने लगते हैं। दिखने में वे नहीं बदलती। परंतु बार-बार के विद्युत इरीटेशन (क्षोभ) के कारण वे स्वयं उत्तेज्यशील (एक्साइटेबल) हो जाती हैं- लम्बे समय के लिए या हमेशा के लिए । इन जानवरों को मिर्गी के दौरे आने लग जाते हैं। मिर्गी का उद्गम मस्तिष्क के उसी भाग से होता है जहां रसायन लगाकर या विद्युत बहाकर उसे विकृत बनाया गया था। ऐसे मिर्गीजनक क्षेत्र को एपिलेप्सी का ‘फोकस’ (विकार स्थान) कहते हैं।
इस भाग से पैदा होने वाली आधिक्यपूर्ण बिजली यदि मिर्गी का दौरान भी पैदा करे तो भी अन्य दीर्घकालिक असर दिखाती है। उन न्यूरान कोशिकाओं को प्रभावित करती है जो तंतु जाल के माध्यम से उसके घने संपर्क में है। तीन से दस माह की अवधि में मस्तिष्क के दूसरे आधे गोलार्ध में समतुल्य स्थान पर द्वितीय फोकस विकसित हो जाता है । ध्यान दीजिए इस बात पर कि द्वितीय विकार स्थान (फोकस) पर न तो बाहर से रसायन लगाया गया, न बाहर से विद्युत बहाई गई। प्राथमिक फोकस (विकार स्थान) बन जा के बाद, वहां से पैदा होने वाली विद्युतीय फायरिंग के कारण एक या अधिक द्वितीयक फोकस बन जात है। इस तरह मिर्गी की बीमारी फैलती है व बढ़ती है।
जानवरों में पैदा की जाने वाली मिर्गी को प्रायोगिक माडल (Experimetnal Model) कहते है । न केवल मिर्गी वरन दूसरी बहुत सी बीमारियों के अध्ययन में एक्सपेरिमेंटल एनिमल (प्रायोगिक प्राणी) माडल से अत्यन्त उपयोगी जानकारी मिलती है व उपचार की विधियां खोजना आसान हो जाता है। विभिन्न मिर्गी विरोधी औषधियों के आरंभिक प्रयोग ऐसे ही प्राणियों पर किये जाते है। फीनोबा नामक औषधि द्वितीय फोकस बनने से रोकती है। फेनीटाइन व कार्बामाजेपीन न्यूरान कोशिकाओं के झिल्लियों की उत्तेज्यशीलता को कम करती हैं व फायरिंग को फैलने से रोकती है। सोडियम वेल्योग- व वायगाबाट्रिन, गाबा-अम्ल नामक दमनकारी रासायनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ाते हैं।
हम जानते है कि मस्तिष्क के विभिन्न भागों से अलग-अलग गतिविधियों का नियंत्रण होता जैसे कि बोलना, देखना, सूंघना, चलना, भावनाएं और व्यवहार । मिर्गी जनिक फोस की स्थिति पर निर्भर करेगा कि कौन सा कार्य प्रभावित हुआ है, तथा इसे दौरे का वर्णन सुनकर जाना जा सकता है । कभी- कभी उक्त फोकस या विकार स्थान से उठने वाला विद्युतीय विस्फोट अत्यन्त तीव्रता से सर्वव्यापी हो जाता हैं|
ऐसी भी मिर्गी होती है जिसमें कोई विकार स्थान नहीं दिख पाता । विद्युतीय गड़बड़ी मस्तिष्क के केन्द्रीय भाग से आरंभ होकर दोनो गोलाों को एक साथ समाहित कर लेती है। इसे प्राथमिक सर्वव्याप (Primary Generalized) मिर्गी कहते हैं । इनकी कार्यविधि समझना और भी कठिन है।
मस्तिष्क के दो गोलार्थों के भीतरी हिस्सों में तंत्रिका कोशिकाओं के दो बड़े समूह होते है जिन्हें थेलेमस कहते है। थेलेमस का कार्य है पूरे शरीर से इन्द्रियों द्वारा प्राप्त संवेदनाओं, सूचनाओं को मस्तिष्क के सर्वोच्च भाग. कार्टेक्स (प्रान्तस्था) तक पहुंचाना या रिले करना । थेलेमस की न्यूरान कोशिकाओं के विद्युत सक्रियता, अन्य भागों की तुलना में अधिक लयबद्ध, समयबद्ध होती है। एक साथ बन्द चालू होने के इस गुण को समक्रमिकता (Synchonisation सिन्क्रोनाइजेशन) कहते हैं । सामान्य परिस्थितियों में ये समक्रमिकता तरंगे उस क्रांतिक स्तर तक नहीं पहुँचती कि मिर्गी का दौरा पैदा हो । यदि समूचा कार्टेक्स उत्तेजित अवस्था में हो या निरोधी-दमनकारी गतिविधियां कम हो गई हों तो सर्वव्यापी दौरा आ सकता है। थेलेमस व कार्टेक्स के इस उभय मार्गी तंत्र का नियंत्रण गडबडा जाने से कार्टेक्स अति-उद्दीपनशील हो सकता है।
विकार स्थान (फोकस) सूक्ष्मदर्शी यंत्र से दिखने में सामान्य हो या असामान्य, वहां की रासायनिक गतिविधियां जरूर गड़बड़ होती हैं। फायरिंग (सुलगने) के दौरान पोटेशियम आयन कोशिका से बाहर आ जाते हैं व केल्शियम आयन भीतर प्रवेश कर जाते हैं । न्यूरोट्रान्समीटर्स (तंत्रिका प्रेषक) का अधिक मात्रा में रिसाव होता है। उक्त फोकस की न्यूरान कोशिकाओं द्वारा ग्लूकोज व आक्सीजन का उपभोग कुछ सेकंड्स के लिए बढ़ जाता है । वहां खून का बहाव बढ़ जाता है । अम्लता बढ़ जाती है। ये सारे परिवर्तन या तो मिर्गी रूपी गतिविधि का कारण हो सकते हैं या परिणाम या दोनों । इसीलिये ऐसी औषधिया विकसित करने पर शोध चलती रही है जो उक्त परिवर्तनो के एक या अधिक पहलुओं पर असर डाले। इस उम्मीद से कि शायद मिर्गी रूपी गतिविधि दमित हो पाए ।
जानवरों में मिर्गी के ऐसे भी प्रायोगिक माडल अब विकसित किये गये हैं जिनमें यह बीमारी आनुवंशिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरे में जाती है। इन उदाहरणों से सिद्ध होता है कि लाखों जीन्स मे से किसी एक में सूक्ष्म गड़बड़ी आने से मिर्गी की बीमारी आनुवंशिक रूप से पैदा हो सकती है। मनुष्यों में भी मिर्गी के अनेक जिनेटिक सिण्ड्रोम की पहचान हो गई है। यह भी ज्ञात हो चला है कि किस प्रकार की मिर्गी में गड़बड़ी वाली जीन, कौन से नम्बर के क्रोमोसोम पर अवस्थित है।