मेरी क्लिनिक में अगली मरीज थी लक्ष्मी। उम्र शायद बीस वर्ष होगी | सामान्य कद काठी। सांवला रंग।
थोड़ी सी गम्भीर, सहमी और डरी हुई लग रही थी। अपनी मां और भाई के साथ आई थी। कॉलेज में पढ़ती थी। मैंने पूछा- क्या हुआ?
मां बोली ‘डॉक्टर साहब एक सप्ताह पहले अचानक सुबह नाश्ता करते समय इसे पता नहीं क्यों और कैसे चक्कर आया। एकदम, अचानक, अपने आप। अच्छी भली उठी थी। हम घबरा गये। ऐसा लगा कि मर जायेगी।
मैंने पूछा ‘और क्या हुआ’
भाई बोला “हम सीधे अस्पताल ले गए। रविवार था। कोई नहीं मिला। हम फोन लगाते रहे…………….. .
मैंने रोका “वह सब बाद में’। पहले ये बताओ कि उस समय और क्या हुआ।
मां कहती रही’ “डॉक्टर साहब ने दिमाग का सी.टी. स्कैन कराया। यह देखिये |”
मैंने फिर रोका, “इसे अपने पास रखिए। मैं कहीं नहीं जा रहा हूँ। सब देखूँगा। चक्कर वाली उस घटना का विस्तृत वर्णन सुनना चाहता हूँ। आपने क्या देखा?
उस समय भाई वहां नहीं था। मां थी। वह बोली “मैं तो घबरा गई थी। हाथ-पांव की मालिश कर रही थी।
मुझे कुछ याद नहीं। इसके दादा जी थे।” मैंने दादाजी को फोन लगवाया। आजकल फोन की आसानी हो गईं है। वरना पहले बहुत मुश्किल होती थी।
बीमारियों के निदान में हिस्ट्री या इतिवृत्त की महती भूमिका है। सब लोग हिस्ट्री अच्छे से नहीं सुना पाते हैं। हम डॉक्टर्स को धैर्यपूर्वक, विनम्रता से, बिना चिढ़े, बार-बार पूछना पड़ता है। मरीज और घर वाले कहानी सुनाते – सुनाते कूद लगाते है। फास्ट फारवर्ड करते हैं। खास बातें चूक जाते हैं। कम मतलब की बातों पर चले जाते हैं। उनकी कोई गलती नहीं। उन्हें क्या पता कि सार-सार क्या है और थोथा क्या?
लक्ष्मी के दादाजी ने उस दिन की घटना का सजीव चित्रण फोन पर बहुत अच्छे से बता दिया।
“हाथ में पकड़ी पोहे की चम्मच हवा में स्थिर हो गई थी। आंखे खुली रह गई थी। कुछ अस्पष्ट सा बुदबुदाई “वो लेलो वो ले लो”। चम्मच गिर गई, हाथ टेढ़ा हो गया, गर्दन मुड़ गई, मुंह से लार व पोहा टपकने लगा, शरीर झुक गया, हम चिल्लाए “लक्ष्मी-लक्ष्मी क्या हुआ”, वह कुछ न बोली। एक साइड का हाथ व पांव कड़क को गये, आंखे एक दिशा में टकटकी लगाकर देख रही थी, गिलास से पानी दुल गया था। यह सर लगभग आधा एक मिनिट रहा होगा। फिर शान्त और निढाल हो गई। बेहोश थी | आंखें बंद । मुंह और गले में शायद कफ जम गया था, श्वांस में खर-खर की आवाज थी, पेशाब से सलवार गिली हो गई थी। एक और मिनिट बाद आंखें खुली, थोड़ा हिली, कस मसाई | सबको देखा पर समझ नहीं पा रही थी। हम पुकारे जा रहे थे। फिर बोली ‘कुछ नहीं, कुछ नहीं’ मुझे क्या हुआ’। पांच मिनिट में पूरी चेतना आ चुकी थी। परन्तु अभी याद न आया था कि उस समय क्या कर रही थी, क्या कर रही थी, क्या खा रही थी।”
काश सभी घर वाले दादाजी के समान इतने अच्छे से हिस्ट्री सुना पायें तो हम डॉक्टर्स का समय बचें और बीमारियों का निदान आसान और सटीक हो जाये। खैर जो भी हो। जिन्दगी का हर पहलू सरल होना जरुरी नहीं है।
यह वर्णन सुनकर मैं जान गया था कि यह मिर्गीनुमा दौरा था। एपिलेप्सी जैसा एक दौरा। परन्तु मैं इसे मिर्गी या एपिलेप्सी का नाम अभी नहीं दूंगा। मेंने और भी अधिक जानकारियां प्राप्त करी। बचपन से अभी तक ऐसी तकलीफ पहले हुई क्या? कोई अन्य बीमारी कभी हुई क्या? परिवार में कौन-कौन हैं? प्रत्येक का स्वास्थ्य कैसा है? लक्ष्मी की दिनचर्या, गतिविधियां, पढ़ाई, खेलकूद, अच्छी बुरी आदतें, खाना-पीना सब जाना।
जन्म के समय कैसी थी? बचपन में विकास कैसा था?
“दुबली पतली थी। ठीक से खाती न थी।’मैंने कहा “अनेक बच्चे दुबले होते हैं। विकास का मतलब है बैठना कब किस उम्र में शुरु किया, खड़े होना चलना कब करा, बोलना कब सीखा’।
“वह सब सामान्य औसत उम्र में हुए थे।“
“विकास इसे कहते हैं ।“
फिर मैंने लक्ष्मी का शारीरिक न्यूरोलॉजी परीक्षण किया जिसमें कोई कमी न थी। मैंने अब उसके इलाज की फाईल व जांच रिपोर्ट मांगी, जिन्हें सौंपने के लिये मां और भाई के हाथ पिछले 5 मिनिट से कुलबुला रहे थे।
भाई ने मेरे पास आकर धीमी आवाज में फुसफुसाते हुए पूछा “डॉक्टर साहब इसे वह तो नहीं है न?”
मैं समझ गया कि “वह” क्या है। भाई और मां उस “वह” का नाम जुबान पर भी नहीं लाना चाह रहे थे।
जैसे भारतीय पत्नियां अपने पति का नाम नहीं लेती है। हालांकि सन्दर्भ एकदम अलग होता है।
मैंने कहा “चिन्ता न करों। ‘वह’ नहीं है।”
उन्हें पूरा भरोसा नहीं हुआ।
“पर रिपोर्ट में तो लिखा है?”
“हो सकता है लिखा हो। मुझे देखने दो।”
लोगों का यह व्यवहार मुझे अजीब लगता है। मानों किसी गन्दी बीमारी नाम न बोलने से वह शायद टल जायेगी ।
अपने यहां मान्यता है- शुभ-शुभ बोलो। मीठा-मीठा बोलो। अशुभ बातें जुबान पर मत लायों | प्रिय बोलो। लेकिन सत्य यदि अप्रिय हो तो? कभी-न-कभी तो बोलना पड़ता है। खून-पेशाब की जांच रिपोर्ट्स अच्छी थी। दिमाग के एम.आर.आई स्केन में कोई खराबी न थी। ई.ई.जी. रिपोर्ट के निष्कर्ष में लिखा था “एपिलेप्सी जैसे ‘डस्थाजेस देखे गये”। मैंने ई३जी आलेख (ग्राफ) के सारे पेज दो बार ध्यान से देखे। एक दो जगहों पर दिमाग की बिजली का ग्राफ थोडा सा अनियमित था। परन्तु मुझे लगा कि वह सामान्य की सीमा के अन्दर है। एक दूसरे डॉक्टर ने उसे ‘मिर्गीः का सबूत मान कर रिपोर्ट किया था।
मेडिकल साइंस की यही मुश्किल है कि वह गणित या न्यूटन की भौतिकी जैसा नही होता। हालाँकि उसकी कुछ तुलना मैक्स प्लांक के क्वांटम सिद्धान्त और आइन्सटाइन सापेक्षतावाद की फिजिक्स से कर सकते हैं।
अर्थशास्त्रियों के बारे में कहावत है कि देश की माली हालत पर पांच इकोनॉमिस्ट से पूछों तो छः राय मिलेगी। इसी तरह चिकित्सा व्यवस्था में दो या अधिक डॉक्टर्स के बीच सोच व निष्कर्ष अलग-अलग होना बहुत आम बात है। वे डॉक्टर्स न तो निकम्मे हैं और न बेईमान।
मैंने फिर भरोसा दिलाया।
“वह चीज नहीं है।” पर उस डॉक्टर ने कहा था कि यह गोली तीन साल तक बिना चूके लेना। एक दिन भी बन्द नहीं होना चाहिए।’
मैंने कहा कि “इस गोली को आप बन्द कर सकते हैं।” ऐसा कहते समय मेरे मन में थोड़ा सा डर या दुविधा जरुर थे। क्या मैं अपना सारा सोच मरीज के साथ साझा करुं? सारी उहापोह, समस्त पक्ष-विपक्ष बताऊं या केवल अन्तिम निर्णय, मानों इस तरह से कि वहीं एक मात्र सत्य है।
“मिर्गी नहीं है। इलाज की जरुरत नहीं |”
लक्ष्मी, उसकी मां और भाई शिक्षित, समझदार लगे थे। मुझे लगा कि वे सत्य के अनेकान्त होने की प्रकृति को महसूस करते होंगे।
लक्ष्मी और उसके भाई ने क्या निर्णय लिया?
मैंने कहना शुरु किया।
“सौ लोगों में से पांच को जीवन में कभी न कभी, किसी कारण से या बिना कारण के, एक न एक बार बेहोशी का मिर्गी जैसा दौरा आ सकता है। उन सबको मिर्मी होना नहीं कहते। केवल एक घटना को मिर्गी रोग नहीं कहते। दो या दो से अधिक दौरे स्वतः, बिना कारण के आवें तो मिर्गी की परिभाषा पूरी होती है। जिस व्यक्ति को एक अटैक आ गया है उसे दूसरा और तीसरा आयेगा या नहीं और कब आयेगा, कितनी जोर का अयेगा, यह सब जानना आसान नहीं है।*
फिर भी कुछ सूचक हैं, जो थोड़ा-थोड़ा इशारा करते है। फाइनल उत्तर नहीं मिलता। संभावनाओं का प्रतिशत घटता बढ़ता है।
लक्ष्मी के मामले में सारे कारक इंगित करते हैं कि आगे और अटैक आने की आशंका कम है।
– जन्म से अभी तक का शारीरिक और बौद्धिक विकास अच्छा है।
– पहले कभी ऐसी मिलती-जुलती अवस्था नहीं हुई।
– परिवार में किसी को यह रोग नहीं है।
– न्यूरोलॉजिकल शारीरिक जांच सामान्य है।
– एम.आर.आई. ब्रेन तथा ई.ई.जी. में खराबी नहीं है।
ऐसी स्थिति में क्यों न, “प्रतीक्षा करो और देखो” की नीति अपनाएं। क्यों न एक काव बवाल के रास्ते पर चलें। कोई औषधि न लें। शायद दूसरा दौरा कभी न आवें। यदि आता है तो देखा जायेगा। तब सोचेंगे। तब इलाज शुरु करेंगे। अभी मत करो।
लक्ष्मी और उसका भाई असहज महसूस कर रहे थे।
“यह भी कोई बात हुई। दूसरा दौरा कैसा आने दें?”
हमें नहीं चाहिए ऐसी अनिश्चितता। आप तो पक्का इलाज करों। एक और अटैक बर्दाश्त नहीं कर सकते। ना बाबा ना। कुछ हो गया तो? ज्यादा लोगों के सामने, कॉलेज में, पार्टी में, सड़क पर आ गया तो सारे जगत में खबर हो जायेगी। “मुझे तो इलाज चाहिये।”
मैंने कहा- मैं इलाज लिख सकता हूँ। मेरा कुछ नहीं जाता। आमतौर पर मानते हैं कि यदि इलाज शुरु करें तो दो-तीन साल लेना चाहिये। हालांकि कुछ डॉक्टर्स केवल एक साल के लिये देते हैं, क्योंकि दूसरा दौरा आने की आशंका प्रथम छः माह से एक वर्ष के बीच अधिक रहती है। यदि तब तक न आया तो फिर बहुत कम रह जाती है। दवाइयों का अपना खर्चा है, कुछ दुष्प्रभाव (साइड इफेक्ट्स) हो सकते हैं। रोज याद रखना पड़ता है। जब आपके केस में सारे फेक्टर अच्छे हैं तो क्या अनावश्यक इलाज करें। बस थोड़ी सी सावधानियां रखना कि नींद पूरी लें, देर रात जागरण न करें,, भूखे प्यासे रखने वाले कठिन निर्जला व्रत उपवास न करें, किसी प्रकार का नशा न करें।
वे तीनों कुछ क्षण सोचते रहे। उनके चेहरे पर संतुष्टि का भाव था। गोलियां लेना मिर्गी का लेबल लगने के समान था जो उन्हें अच्छा न लग रहा था। उन्होंने निर्णय लिया कि वे सावधानियां बरतेंगे ओर इलाज न लेगें।
लक्ष्मी की कजिन विनिता की शादी
लगभग छः: महीने बाद लड़की का परिवार लखनऊ आया हुआ था। बुआ की बेटी, लक्ष्मी की कजिन विनिता की शादी थी। विनिता, बहन से अधिक सहेली थी। बचपन से साथ खेले बढ़े थे। ढेर सारे रिश्तेदार आये थे। देर रात तक संगीत और नाचगाना चलता रहा। फेरों का मुहूर्त रात्रि दो बजे का था। और फिर वही घटना दोबारा हुई। वैसे ही चक्कर, गिरना, बेहोशी, हाथ-पांव अकड़ना, गले की चीख, मुंह से थूक। सिर्फ दो मिनिट। चारों और कोहराम मच गया। क्या हुआ, क्या हुआ, दौड़ो, आओ, फोन करो, अस्पताल ले जाओ | लक्ष्मी के माता-पिता भाई धक्क थे | मुंह लटका कर छिपा रहे थे।
फूफाजी डॉक्टर थे। उन्होने अपने मित्र के नर्सिंग होम से एम्बुलेंस बुलवाई। आई.सी.यू. में दाखिल करवाया। हालांकि रास्ते में ही लक्ष्मी को होशा आ गया था और वह बिल्कुल सामान्य महसूस कर रही थी। अनेक बार हॉस्पीटलाइजेशन अनावश्यक होता है। घर वाले बेचारे क्या जाने? वे घबराए हुए होते है? डॉक्टर्स क्यों रिस्क ले? कहीं कुछ और हो गया तो उन पर जिम्मेदारी आयेगी। बिजनेस मिले तो किसे बुरा लगता है?
यहां ‘बिजनेस’ शब्द को गलत अर्थ में न व्यवसाय (Profession) के मूलभूत आर्थिक आधार एक जैसे होते हैं।
शिराओं के इन्ट्रावीनस इंजेक्शन लगाये गये, ग्लूकोज सलाइन आदि की बोतलें लगीं एण्टीबायोटिक्स दी गई। तमाम जांचे दुहराई गई। सब की सब पुनः सामान्य | इसमें से कितना ठीक था कितना नहीं इसका निर्णय कौन कर सकता है?
लखनऊ के वरिष्ठ न्यूरोलॉजिस्ट ने मिर्मी विरोधी औषधि का नुस्खा लिखा जो तीन वर्ष या अधिक तक जारी रहना था। फिर उन्होंने कुछ और कहा जो वे न कहते तो उचित होता ।
“कौन डॉक्टर था आपका? जब इतना बड़ा दौरा आ चुका था तथा ई.ई.जी. में मिर्गी थी तो उसी समय इलाज शुरु क्यों न कर दिया? वरना आज यह नौबत न आती |”
लक्ष्मी और परिजनों को अपने डॉक्टर की आलोचना अच्छी नहीं लगी। उसने सारे पहलू विस्तार से समझाए थे। निर्णय थोपा नहीं था बल्कि मिलजुल कर सम्मति से लिया गया था। यदि ऐसा न हुआ होता तो लक्ष्मी का परिवार उसके फूफाजी व लखनऊ के न्यूरोलॉजिस्ट की बातों में आकर जरुर मन में गुस्सा, कुण्ठा, चिढ़ भर करके अपने डॉक्टर के खिलाफ उपभोक्ता न्यायालय में दावा लगाते। इस तरह की दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियों को कम करने के लिये जरुरी है कि चिकित्सक व मरीज के बीच खुल कर सवाद हो, ढेर सारी बातें हो, समस्त प्रश्न पूछे जायें और तफसील से उत्तर दिये जायें। मुश्किल यह है कि डॉक्टर्स के पास समय कम होता है या उनका सोच ऐसा होता है कि उनके पास समय कम है। मेडिकल प्रेक्टिस में शार्टकट की कोई जगह नहीं होना चाहिये। ‘लेकिन कई बार मजबूरी में ऐसा होता है। कई बार डॉक्टर के स्वाभाव के कारण होता है।
कुछ डॉक्टर्स को लगता है कि इतनी सारी बातचीत, इतने सारे सड़े-पिड़े मूर्खता भरे सवाल, जबरजस्ती मेरा टाइम बर्बाद करते हैं। समय ही पैसा हे। मुझे क्या अतिरिक्त मिलता है।
ऐसा सोच गलत है। चिकित्सक का काम केवल नुस्खा लिखना या ऑपरेशन करना नहीं है। मरीज को तमाम जानकारी देना और समस्त शंकाओं को दूर करके एक टीम भावना के साथ मिलजुल कर साझा निर्णय लेना उसकी भूमिका और कर्तव्य का अभिन्न अंग हैं।
डॉक्टर्स और मरीज के रिश्तों को बिगाड़ने का काम लखनऊ के वरिष्ठ न्यूरोलॉजिस्ट जैसे लोग भी करते हैं जिन्हें अपने साथियों की बुराई करके तथा खुद को ऊंचा दिखाने में आनन्द मिलता है। वे ये नहीं सोचते कि दूसरे डॉक्टर ने किन परिस्थितियों में, क्या सोचबूझ कर, कैसे निर्णय लिया था।
कथा 2
दीपिका
इस कथा को थोड़ा संक्षेप में बयां कर सकते हैं। जैसी लक्ष्मी वैसी दीपिका। वही उम्र वही, पृष्ठभूमि, वैसा ही प्रथम दौरा जो मिर्गी जैसा प्रतीत होता है। लेकिन अनेक चीजें जुदा हैं।
दीपका अपनी बहन और पिता के साथ आई थी। जीन्स और टी शर्ट में। खुशनुमा, बिन्दास, सदा मुस्कुराती, चहचहाती हुई थी। पिछली घटना ने सब को हिला कर रख दिया था। केवल दीपिका को छोड़कर । वह मानती थी कि उसे कुछ नहीं है। घर वाले खामख्वाह चिन्ता कर रहे हैं। रात को नींद में एक बड़ा दौरा आया था। वही तीन मिनट रहा होगा। पूरा शरीर, चारों हाथ पांव में झटके, भिचें हुए दातों के बीच जीभ का कटना। अगले दिनभर सिरदर्द, बदनदर्द, थकान और चक्कर रहे थे।
जन्म और बचपन के विकास की हिस्ट्री से मालूम पड़ा कि समय से पूर्व आठवें माह में पैदा हुई थी। जन्म के समय वजन कम था (2.0 किलोग्राम)। दो दिन नर्सरी में, ऑक्सीजन लगा कर रखा था। शारीरिक और बौद्धिक विकास के मील के पत्थर यू तो सामान्य सीमा में थे, परन्तु थोड़ा सा लेट। पढ़ने में तेज नहीं थी परन्तु पूरक परीक्षाओं और कृपांको के सहारे कॉलेज तक आ गई थी।
एक चाचा और उनके बेटे (चचेरे कजिन) को मिर्गी का रोग था । एम.आर.आई. स्केन में मस्तिष्क के दायें गोलार्द्ध में एक छोटा सा दाग था जो शायद जन्म या बचपन के समय से रहा होगा- उक्त भाग में रक्तप्रवाह व ऑक्सीजन सप्लाय में रुकावट के कारण रहा होगा । ई.ई.जी. ग्राफ में मस्तिष्क के उसी हिस्से पर मामूली खराबी थी (धीमी तरंगें लेकिन पर मिर्गी जैसी नुकीली तरंगे नहीं)।
मैंने सोचा कि दीपिका को पुन: मिर्गी जैसे दौरे आने की आशंका अधिक है इसलिये इलाज शुरु कर देना चाहिये, जो कि दो-तीन वर्ष चलेगा। दीपिका की बहन और पिताजी इंटरनेट से पढ़कर आये थे कि मिर्गी की परिभाषा में दो या अधिक दौरे आना जरुरी हे तथा यह भी कि एक अकेले अटैक के बाद औषधियां शुरु नहीं करते हैं। दीपिका की भी ऐसी ही इच्छा थी।
हमारा सामना अनेक प्रकार के परिवारों से पड़ता है। आज से कुछ दशक पूर्व तक ज्यादातर लोग चिकित्सक को माईबाप और सर्वज्ञानी मानते थे।
“जो भी निर्णय लेना है, वही लें। हमारा काम तो आपके निर्देशों का पालन करना है। क्या बीमारी है, क्या जांचे करना है, क्या इलाज करना है, यह सब आप जानों | हमें क्या पड़ी है। हमें तो बस अच्छे होना है।’
उस जमाने में लोगों की शिक्षा का स्तर कम था। डॉक्टर मरीज का रिश्ता वन-वे-ट्रेफिक जैसा था। एक प्रदाता- दूसरा ग्रहीता। अब हालात बदले हैं और अच्छे के लिये बदले हैं। लोगों में ज्ञान की ललक बढ़ी है। खुद के स्वास्थ्य और जिंदगी से संबंधित निर्णयों में अपना पक्ष, अपनी सोच व इच्छा रखी जाने लगी है। हालांकि कुछ मरीज कभी-कभी बोर करते हैं, चिढ़वाते हैं। अधूरा ज्ञान परेशान करता है। पर ठीक है। यह हम डॉक्टर्स का काम है कि हम सब प्रकार की परिस्थितियों में श्रेष्ठ सलाहकार की भूमिकाएं निभाएं।
एक तरफ मुझे खुशी होती है जब मैं देखता हूँ कि मेरे लेखन व वीडियो आदि के कारण तथा परामर्श के दौरान न पूछें जाने के बावजूद मेरे द्वारा जानकारी दिये जाने के कारण, धीरे-धीरे लोगों का स्वाभाव बदल रहा है।
दुसरी तरफ धैर्य रख हुए मरीजो अधकचरी जानकारी को ठीक करना पड़ता है, मिथ्याधारणाओं को दूर करना पड़ता है, गलत यकीनों को काटना पड़ता है। दीपिका के घरवाले कह रहे थे कि “अभी क्यों दवाई शुरु करे? क्या आपको पक्का लगता हैं यह मिर्गी ही है? आप कैसे कह सकते हैं कि अगले दौरे आ ही जायेंगे। एलोपैथीक दवाइयो के कितने साइड-इफेक्ट होते हैं। हमारे दादाजी के टाइम से हम लोग आयुर्वेदिक या होम्योपेथिक इलाज में ज्यादा भरोसा रखते हैं।“
मैंने कहा कि “मै सिर्फ आघुनिक चिकितसा विज्ञान को जानता हूँ। मैं उसे ऐलोपैथी नहीं कहता। और मान कर चलो हर औषधी के दुश्प्रभाव हो सकते हैं। कभी कम कभी ज्यादा। यदि किसी औषधि के बारे में दावा किया जावे कि उसके कोई साइड इफेक्ट नहीं है तो जान लो कि उसके कोई इफेक्ट्स भी नही होंगे । वह शायद प्लोसीबो जैसी होगी।
मैने उन्हें दवाई का नुस्खा लिख कर दिया। उस औषधि की जानकारी का एक पुर्जा (पैकेज इन्सर्ट) भी दिया जिसमें तमाम साइड-इफेक्ट गिनाए गये थे- कुछ कॉमन तो कुछ दुर्लभ। इन पुर्जों से डर कर चलें तो कोई मरीज, कभी कोई औषधि न खाए। थोडी झिञ्क और असंशय के साथ दीपिका ने वह नुस्खा लेना स्वीकार किया और वादा किया कि बताए गये अन्तरालों पर निर्दिष्ट प्रयोगशाला जाचें करवाती रहेगी।
दीपिका के घर की आर्थिक हालत अच्छी न थी। पिताजी को रिटायरमेंट के बाद छोटी सी पेंशन मिलती थी। मां की बीमारी के इलाज का कर्जा उतारना था। बडी वहन स्कूल में पढ़ा कर घर चला रही थी। उसकी शादी कैसे होगी और जब होगी उसके बाद क्या होगा यह सोचकर पिताजी का दिल डूबता रहता था।
मेरे द्वारा लिखी गई औषधि का मासिक खर्च रु. 3000,/- था। पिछले वर्ष एक नई औषधि मार्केट में आई थी जिसका मासिक खर्च 40,000 था। उसके बारे में कम्पनी दावा करती थी (कुछ शोध प्रबन्धों का हवाला देकर) कि साइड-इफेक्ट कम हैं। दीपिका के घरवालों के लिये 3,000 रु. भारी था। शायद वह भी कारण रहा हो इलाज से मना करने का। नयी महंगी दवा का प्रसार करने वाले मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव पर कम्पनी का दबाव था कि बिक्री बढ़ नहीं रही है। डॉक्टर्स को नाना प्रकार की भेंट दी जाती थी। इस दवाव में आकर, कभी शोध पत्रिकाओं में पढ़ करके कि नर्द दवा वास्तव में खूब अच्छी है तथा कभी-कभी मरीजों के झूठे आश्वासन पर (साहब बेस्ट इलाज करिये, पैसे की चिन्ता नहीं) डॉक्टर्स महंगी दवा लिख देते हैं। थोडे ही दिनों में मरीज चीं बोल जाते हैं। शर्म के मारे दुबारा नहीं आते। इलाज बंद हो जाता है।
फिर आचानक क्या हुआ ?
यही सब सोचकर और समझ कर दीपिका को पुरानी जानी पहचानी कम महंगी औषधि का नुस्खा लिखा गया था।
दीपिका गोलियां लेती रहीं। उसने न जांच करवाई, न अनुगमन परामर्श (फालो-अप) के लिये आई। सब ठीक चल रहा था। गर्मी की छुट्टियों में पूरा परिवार मामाजी के घर एक सप्ताह के लिये देहरादून आया था। दो दिन मसूरी घूमने जाने का का कार्यक्रम था। प्रवास के पहले दिन से दीपिका को हल्की हरारत और बदन दर्द था| पर यात्रा के उत्साह में ध्यान न दिया। मसूरी पहुंचते की बुखार व दर्द बढ़ गये। दोपहर तक शरीर पर लाल दाने उभर आये । हिल स्टेशन के छोटे अस्पताल में जनरल प्रेक्टीशनर ने कुछ इलाज दिया व आराम करने को कहा। सब लोग साइटसीइंग पर गये थे। दीपिका अकेली कॉटेज में तपती रही। पीड़ा असहनीय हो चली। पूरे शरीर में खुजली चल रही थी। मुंह में छाले हो गये थे। पेशाब मार्ग में जोर से जलन होने लगी। मूत्र का रंग कुछ लाल सा था। खाते नहीं बन रहा था। बाथरुम तक जाने में चक्कर आ रहे थे। देर शाम अंधेरा पड़ने पर जब सब लौटे तो दीपिका सन्निपात में थी। बदन तप रहा था। शरीर पर चकते और फफोले थे। बोल अस्पष्ट था। सब घबरा गये। मसूरी के डॉक्टर ने हाथ खडे कर दिये।
ताबडतोड़ अर्जेण्ट टेक्सी किराए पर लेकर, नीचे उतरे, देहरादून के बड़े अस्पताल लाये। तीन दिन आई.सी.यू. में रखा। डॉक्टर ने बताया कि “स्टीवेन्स जान्सन” नामक गम्भीर रोग है जो कभी-कभी जानलेवा हो सकता है। प्रायः किसी औषधि की रिएक्शन के कारण होता है। खतरनाक किस्म की एलर्जी है। धीरे-धीरे हालत सुधरी। चौथे दिन पुनः मिर्गी का दौरा आ गया। पुरानी औषधि बन्द कर दी गई थी। न्यूरोलॉजिस्ट को बुलाया गया। उसने सारे पेपर्स देख छूटते ही कहा “यह दवाई का रिएक्शन है। आपकी बच्ची मुश्किल से बची है। कौन डॉक्टर था। केवल एक दौरे के बाद इलाज क्यों शुरु करा। प्रतीक्षा करो और देखो की नीति क्यों नहीं अपनाई। यह पुरानी वाली दवाई क्यों लिखी? पैसे देखता है कि मरीज का स्वास्थ्य? अब बेहतर दवाईयां मार्केट में आ गई हैं।”
दीपिका के घर वालों को भी अपने डॉक्टर की आलोचना में दम लग रहा था। जब आने नगर लौटे तो कर्जा बढ़ चुका था। इलाज का मासिक खर्च बढ़ गया था। पिताजी के एक घनिष्ठ वकील मित्र ने बिना फीस लिये उपभोक्ता फोरम में दावा ठुंकवाया। लालच था कि मोटी राशि मिलगी, तो कर्जा पट जावेगी। वे कोर्ट में केस हार गये। भला हो मेरी आदत का कि मैं समस्त व उपचार व परामर्श का रिकार्ड रखता हूँ जिसमें मय तारीख के लिखा था कि औषधि के साइड इफेक्ट के बारे में बताया गया है। डॉक्टर्स को मेडिकल रिकार्ड रखने में बहुत आलस आता है, कोफ्त होती है, पैसे और समय की बर्बादी लगती है। परन्तु ऐसा करना जरुरी है। मेडिको लीगल कारणों से, बेहतर सेवा करने की दृष्टि से और शोध के उद्देश्य से भी।
Post Script 1
लक्ष्मी ने 3 वर्ष इलाज लिया। सारी जांचें दुहराई गई और सामान्य पाई गई। औषधि धीरे-धीरे कम करके, 6 माह में बन्द करी गई। कभी भी अचानक से बन्द नहीं करते। बाद में कभी दौरा नहीं आया। शादी हुई। नौकरी करी। बच्चे हुएं सब ठीक रहा।
Post Script 2
दीपिका के घर वाले महंगा इलाज जारी न रख पाये। डॉक्टर्स बदलते रहे। दवाइयां बदलते रहे। दौरे आते रहे। पांच वर्ष बाद सकुचाते हुए, माफी मांगते हुए मेरे पास पुनः आये। मैंने उन्हें एम्स, दिल्ली रेफर किया, जहां कम खर्च में शल्य उपचार हुआ। औषधि की खुराक कम करते-करते छुड़वा दी गई। दीपिका का भी विवाह हुआँ और सानन्द रही।
लक्ष्मी को केवल एक दौरा आया था। सब जांचों की रिपोर्ट अच्छी थी। उसे मिर्गी नहीं थी। शादी की बातचीत चलाते समय घर वालों ने उस एक हादसे के बारे में कुछ न बता कर, गलत नहीं किया।
दीपिका को बहुत सारे दौरे आते रहे थे| लम्बा इलाज़ चला था | बहुत लोगो को पता चल चुका था। इस सच्चाई को छुपाना संभव नही था।
लेकिन लक्ष्मी और दीपिका के अलावा भी मिर्गी के बहुत सारे रोगी होते है जिनके लिये यह निर्णय आसान नही होता।